समर्थ सद्गुरु रामदास जी महाराज गुजरात वाले (बापू) ने श्री हनुमंत लाल जी की उपासना इस प्रकार की है की यहाँ (गुजरात) पर यह स्थान (श्री सीताराम आश्रम) सिद्ध पीठ आश्रम बन चूका है। यहाँ पर श्री हनुमंत लाल जी की शक्ति की अनुभूति होती है। इसलिए यहाँ पर हजारो नर नारियो का कल्याण हो चूका है। आज हजारो नर नारी उनके दर्शन और आशीर्वाद से आनंदित हो चुके है,
सद्गुरुदेव गृहस्थ होते हुए भी सिदध हो चुके है और निरंतर विश्व कल्याण की भावना से जीव, सत्य और धर्म की रक्षा के लिए अनवरत प्रयास कर रहे है । विश्व शांति की भावना एवं जीवन संकल्प को पूर्ण करने के लिए समर्थ गुरु रामदास जी महाराज गुजरात वाले (बापू), कठिन संघर्षो से उबरते हुए एवं सत्य का आचरण करते हुए श्री राम जी की मर्यादा को धारण करते हुए श्री हनुमंत लाल जी की भक्ति और आशीर्वाद से श्री सीताराम आश्रम में दर्शनार्थ आने वाले श्रद्धालुओं का कल्याण करते है।
जिन्हे भी किसी प्रकार की अशांति हो वो एक बार श्रद्धा पूर्वक आकर श्री सीताराम आश्रम में श्री गुरुदेव का दर्शन करे और श्री संकट मोचन महाबली हनुमान की शक्ति से अपने जीवन के कष्टों को दूर करे। सच्चे संतो की सेवा उनकी संगति हमेशा भक्त साधक एवं शिष्य को सत् मार्ग की ओर ले जाती है।
आशीर्वाद प्राप्ति के बाद मनुष्य कांच और कौड़ी के चक्कर में नहीं फसता। उसे जीव और ईस की समझ आ जाती है। फिर वह सिर्फ सत्संग गंगा में गोते लगाते हुए भगवान के चरणों का प्रिय पात्र हो जाता है, फिर वह तमाम लोगो को प्रिय हो जाता है ।
भारत भूमि में प्रयाग के सन्निकट मिश्रपुर गांव समर्थ सद्गुरु रामदास जी महाराज गुजरात वाले (बापू) की जन्म भूमि है। यहाँ से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर एक गांव पकरीसेवार है । यह ठीक गंगा के दक्षिण तट पर स्थित है। यहाँ पर एक सुंदर आश्रम है। इस आश्रम के संस्थापक आपके पिताश्री एवं गुरूजी ब्रह्मलीन श्री उमापति जी महाराज थे , आप भी एक अद्वतीय संत थे। आप ५० वर्ष की आयु में विरक्त को प्राप्त हुए। एक दिन अचानक घर छोड़कर गायब हो गए , घर वापस आने की शर्त यह थी की गंगा तट पर उनके लिए एक आश्रम बनवाया जाये जहा पर श्री हनुमान जी महाराज का मंदिर हो , घर वाले मान गए और वही श्री गंगा जी के तट पर घर वालो ने एक आश्रम और श्री हनुमान जी महाराज जी के मंदिर का निर्माण करवाया। वहां पर संत महात्माओ का आगमन सुरु होगया। महाराजजी का भी आश्रम पर आना जाना प्रारम्भ होगया। वहां जाकर साधु संतो की सेवा करते थे। समय मिलने पर अपने मे ही खोये रहते थे ।
एक दिन पिताश्री उमापति जी ने कहा कुछ किया धरा करो, जिससे जीवन चलना है, तो अपने कहा, क्या करू? कोइ काम हो तो बताये। उन्होंने कहा खूब पढ़ो, फिर आपने कहा यह भी कोई काम है , कुछ और बताये जिसे मैं कर सकू। फिर पिताश्री ने कहा तुम ही बताओ क्या कर सकते हो? फिर आपने कहा भगवान की भक्ति और पूजा । पिताश्री ने पूछा भगवान को जानते हो या कभी देखा है? तो आपने कहा जानता या देखा तो नहीं परन्तु देखने और जानने की प्रबल इच्छा है । पिताश्री ने कहा की इस मंदिर में जो विराजे है इन्हे जानते हो कौन है ? आपने कहा राम भक्त हुनुमान जी महाराज है ।फिर पिताश्री ने कहा बस पहले तुम भक्तो की भक्ति सेवा और करो भगवान अपने आप मिल जायेंगे । और उस दिन से आज तक निरंतर श्री हनुमानजी महाराज जी का सतत पूजन और आराधना चल रही है|आप के लिए पिताश्री का आदेश ही सब कुछ था । आपने उनकी बातो को शिरोधार्य कर उसका पालना निरंतर कर रहे है ।
आप फिर बलसाड़ , गुजरात आ गए।यहाँ एक छोटे से मंदिर में रहते हुए अनेको लावारिस मृत देहो का संस्कार किए , अनेको असहाय मरीज़ो का इलाज करवाते , वस्त्रहीनो को अपना वस्त्र उतर कर दे दिया करते थे । लोगो ने आपको पागल की उपाधि तक दे डाली। पर उन्हें क्या पता की संत हृदय मक्खन की तरह नरम होता है । जो किसी की पीड़ा नहीं देख सकते । संत तो परदुख से अतयंत द्रवित हो जाते है जीव की सेवा और सहायत से पीछे नहीं हटते । वलसाड के उस स्थान से अनेको का उद्धार किया और श्री गुरु से अभिसिंचित किया हुआ अन्न छेत्र भी आपके साथ लगा रहता है। आप जहा भी रहे कोई भूखा नहीं जाता , प्रसाद पाकर ही रहता है । यह सब कहाँ से पूरा होता है , यह तो श्री गुरदेव हनुमानजी महाराज जाने । महाराजजी का मानना है की अन्ना दान एक महादान है । इसके समान कोई दान नहीं।
एक बार श्री समर्थ रामदासजी महाराज जी ने 7X10 फ़ीट के श्री हनुमान जी महाराजजी के मंदिर में सात दिवसीय अनुष्ठान किया और सात दिन तक बाहर नहीं निकले| श्री हनुमानजी महाराज की साधना में लीन श्री समर्थ रामदासजी महाराजजी के मार्ग में दांपत्य सूत्र भी बाधक नहीं बन पाया, उस जवाबदारी को निभाते हुए आप विरक्त को प्राप्त हुए।श्री हनुमानजी महाराजजी की ऐसी अनुकम्पा हुयी की वे अपने आप ही अलग अलग हो गए।
साधना मार्ग दिनों दिन अपने चरम पर पहुँचता जा रहा है। कृपा तो ऐसी है की जब भी श्री हनुमानजी महाराजजी के बारे में सत्संग होती है तो आपका भाव विह्वल , हृदय द्रवीभूत और नयन सजल हो जाते है, उस समय कोई आशीर्वाद प्राप्त करले तो उसकी तमाम बाधाएं स्वयंग समाप्त हो जाती है। कई लोगो को आर्शीवाद प्राप्त हुआ और उनका कल्याण भी हुआ लेकिन गुरु महाराज ने किसी को भी अपनी शिष्यता प्रदान नहीं की। दीक्षा मांगने पर कहते है पहले शिष्यता के पात्र बनो।